Sunday, October 19, 2008

जलाओ दिए, पर .....

दीवाली आने वाली है और फिजाओं में उमंग ही उमंग है..परन्तु अभी भी दीवाली की रौशनी धरती से अन्धकार मिटाने में सफल नही हुई है..ऐसे में मुझे एक कविता याद आती है जो मुझे बचपन से ही अच्छी लगती है..लेकिन इसका असली मतलब मुझे अब समझ आया है....

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी, निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग, ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाये
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर में, कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी, कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही, भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में, नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
-गोपालदास "नीरज

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