Monday, August 24, 2009

An interpretation based on objective reality

In the political science classes, we were taught that the aim,philosophy and direction of the Indian democracy are enshrined in the Preamble of the Constitution of India which is as follows:

WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens:

JUSTICE, social, economic and political;

LIBERTY of thought, expression, belief, faith and worship;

EQUALITY of status and of opportunity; and to promote among them all

FRATERNITY assuring the dignity of the individual and the unity and integrity of the Nation;

But science teaches us not to blindly believe in whatever is being told by our ancestors or written in the holy books but to draw conclusions based on the objective conditions.The functioning of Indian democracy over a period of time is appearing to give the following meaning:

WE, THE CAPITALISTS and POLITICIANS OF INDIA, having conspired to constitute India into a HEGEMONIC CAPITALIST COMMUNAL DYNASTIC REPUBLIC and to secure to ourselves:

JUSTICE in the distribution of plunder;

LIBERTY of unbriddled exploitation of the labour of the people

EQUALITY of status and of opportunity to oppress; and to promote among ourselves

FRATERNITY assuring the opulence of each of us

and to force upon the People of India

INJUSTICE social, economic, political and ecological;

CURTAILMENT of thought, expression and human rights;

INEQUALITY of income, status, opportunity and potential;and to promote among them

HOSTILITY by exploiting the labour of individual and by dividing the people in the name of caste,religion,language and region.

Tuesday, August 11, 2009

ये कैसी आज़ादी! ये किसकी आज़ादी!

अक्सर लोग १५ अगस्त के दिन को देशभक्ति के गाने सुनकर,मिठाइयां बांटकर और सड़कों पर मासूम बच्चों द्बारा बेचे गए तिरंगे को अपनी गाड़ियों पर लगाकर अपने देश पर फ़क्र करते हुए मनाते हैं. मेरे मन में भी पिछले साल तक १५ अगस्त को कुछ ऐसी ही गौरवानुभूति होती थी. लेकिन पिछले साल और इस साल के बीच मेरी सोच में ज़बरदस्त बदलाव आया है.अब मुझे लगता है कि आज़ादी का 'हनीमून पीरियड' ख़त्म हो गया है और समय आ गया है कि इस तथाकथित आज़ादी पर कुछ बुनियादी सवाल दागे जाएँ और इस देश की हुकूमत चलाने वालों को कटघरे में खड़ा किया जाय.
क्या यह सोचने का समय नहीं आ गया है कि क्या ऐसे ही देश और समाज के निर्माण के लिए ही स्वतंत्रता संग्राम में शहीदों ने शहादत दी थी? आज़ादी के ६३ वर्ष पश्चात हमारा देश आंसुओं के सागर के बीच समृद्धता के चंद टापुओं के समान दिखता है. चन्द लोगों के लिए यह चमकता दमकता 'शाइनिंग इंडिया' है और देश कि बहुसंख्यक आबादी के लिए अंधकारमय भारत.चमकते दमकते शॉपिंग मॉल्स के ग्लैमर भरी चकाचौंध में प्रायः देश की तरक्की का मिथ्याभास होता है. लेकिन इन मॉल्स की चकाचौंध से थोड़ा दूर हटकर इनके निर्माण कि प्रक्रिया में शामिल मज़दूरों और उनके मालिकों के जीवन स्तर पर निगाह डालें तो इस उदयीमान भारत की ज़मीनी हकीकत का पर्दाफ़ाश हो जाता है. इस प्रक्रिया में अपना शारीरिक श्रम झोंकने के बावजूद उनको इतनी भी दिहाड़ी नहीं मिलती कि वह अपने और अपने परिवार के लिए दो जून कि रोटी का जुगाड़ कर सकें; आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ज़रूरतों कि तो बात ही छोड़ दीजिये. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस देश की ७७ प्रतिशत आबादी की औसत दैनिक आय मात्र २० रुपये है. इस ७७ प्रतिशत आबादी का एक बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में ठेके पर कार्यरत उन मज़दूरों का है जो हमारे ऐशो आराम के लिए शॉपिंग मॉल बनाते हैं, गगनचुम्बी इमारतें बनाते हैं और इस देश के तथाकथित विकास के लिए बेहद ज़रूरी सड़कों, फ्लाई ओवरों, पुलों बांधों इत्यादि के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.इसके बावजूद यह देश इस मेहनतकश आबादी के प्रति मानवीय व्यवहार भी नहीं करता. दिल्ली मेट्रो के निर्माण के दौरान आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं में मज़दूरों की मृत्यु और सरकार तथा मीडिया का संवेदनहीन रवैया इस बात का ताजा उदहारण हैं.आज के 'अतुल्य भारत' में हर चौथा व्यक्ति भूखे पेट सोता है, आधे से अधिक महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं और आधे से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. ये महिलाएं और बच्चे उसी बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी का हिस्सा हैं जिसका इस देश और व्यवस्था में सबसे अधिक शोषण हो रहा हैं.

वहीँ दूसरी ओर पूंजीपति मालिक वर्ग बिना किसी शारीरिक श्रम के अपने पैसों की ताकत के धौंस पर इस देश पर राजकाज कर रहा है, अपनी ऐयाशियों के लिए भांति भांति के तरीके ढूंढ कर व्यापक मेहनतकश आबादी कि हड्डियाँ निचोड़कर और खून चूसकर अपनी तिजोरियां भरता जा रहा है।इस वर्ग की विलासिता का मुकाबला पश्चिमी देशों का पूंजीपति वर्ग भी नहीं कर पा रहा है. मुकेश अम्बानी ५०% 'स्लमडागों' की आबादी के मुंबई शहर में अपने ६ सदस्यीय परिवार को १४ मंजिला घर से ऊबकर एक नए ६० मंजिला इमारत के समान ऊंचाई का घर गिफ्ट में देने की तैयारी में लगे हैं.इस घर की लागत लगभग ४०० करोड़ बताई जा रही है. विजय माल्या एक नए निजी टापू खरीदने की योजना बना रहे हैं, चाहे इसके लिए कुछ लोगों की नौकरियां और रोजी रोटी भी क्यों न छीननी पड़े। कुछ अपवादों को छोड़कर, जनता के सेवक कहलाने वाले राजनीतिज्ञ और नौकरशाह वास्तव में इन पूंजीपतियों के हितों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी ही चाकरी करते हैं, तथा इस प्रक्रिया में अपनी और अपनी आने वाली पीढियों का भविष्य सुरक्षित करते हैं. स्विस बैंक में जमा पूँजी में भारतीयों का अव्वल स्थान इस घिनौने सच का पुख्ता सबूत है.

रही बात मध्य वर्ग की, तो मध्य वर्ग इस देश में व्याप्त आतंकवाद,भ्रष्टाचार, मंदी ,बढती महंगाई,बेरोज़गारी, बाबुओं की बदसलूकी इत्यादि पर नाक भौं तो सिकोड़ता है;कभी कभी जब आग घर तक पहुँचने लगती है तो मोमबत्ती जलाकर अनुष्ठानिक विरोध करता भी दिखाई पड़ता है, लेकिन इन समस्याओं की जड़ को समझने की कोशिश नहीं करता तथा इन समस्याओं के जड़मूल समाधान में अपनी भूमिका बनाने से कतराता रहता है.उल्टे मौका मिलने पर वह पूंजीपति वर्ग द्वारा दी गयी रियायतों के लालच में आकर पूंजीपति वर्ग के सम्मान में प्रशस्तियाँ गढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है. इनमें से कुछ 'सेलिब्रिटी' लोग मीडिया में देश की अर्थव्यस्था की तरक्की को प्रमाणित करने के लिए जीडीपी विकास दर के आंकड़े दिखा कर लोगों की आँखों में धूल झोंकने का काम करते हैं. क्योंकि वो यह नहीं बताते हैं इस तथाकथित विकास का किस अनुपात में वितरण हो रहा है. वो भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढती हुई अर्थव्यवस्था सिद्ध करने और भावी सुपर पावर बनाने के दंभ में यह भूल जाते हैं या जान बूझ कर छिपाते हैं कि 'मानवीय विकास सूचकांक' में भारत श्रीलंका, भूटान और यहाँ तक कि कुछ अफ्रीकी मुल्कों से भी पीछे है. यह सूचकांक यू. एन. ओ. की एक संस्था द्वारा निकाला जाता है और यह हर देश में नागरिकों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों की उपलब्धता के आधार पर तय होता है. इस सूचकांक में भारत कि स्थिति १७७ देशों में १२८ वीं है और पिछले कुछ वर्षों में भारत कुछ पायदान फिसला ही है. शायद कुछ 'देशभक्तों' को इस बात से तसल्ली होगी कि पाकिस्तान का स्थान भारत से भी पीछे है, लेकिन वह भी ज्यादा पीछे नहीं है.
मध्य वर्ग के कुछ लोग भारत में वैज्ञानिक प्रगति पर बड़ा गर्व महसूस करते हैं, लेकिन इस सच्चाई से मुंह चुराते हैं कि देश में कोई मौलिक वैज्ञानिक शोध का कोई माहौल ही नहीं है और नागरिकों कि औसत वैज्ञानिक चेतना का स्तर बहुत ही नीचे है. देश भर में व्याप्त धर्मान्धता, अन्धविश्वाश तथा भांति-भांति के ढोंगी और पाखंडी बाबाओं का कुकुरमुत्ते कि तरह पनपना और टी. वी. चैनलों पर छा जाना इस समाज कि औसत वैज्ञानिक चेतना को दर्शाता है. नहीं तो ऐसा क्यों है कि इतने सारे टी.वी. चैनलों में विज्ञान पर आधारित एक भी चैनल नहीं है.

ऐसे माहौल में स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाने से अच्छा तो यह होगा की इस बात पर गंभीरता से सोचा जाय कि यह कैसी आज़ादी है और किसके लिए आज़ादी है? क्या आज़ादी की लड़ाई इसलिए लड़ी गयी थी कि मुनाफ़ाखोरों को मेहनतकश आबादी का शोषण और उत्पीड़न करने की खुली छूट दे दी जाय और बहुसंख्यक आम जनता को एक इंसानी जिन्दगी जीने के लिए आवश्यक बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित रखा जाय? आज़ादी कि लड़ाई तो न्याय पर आधारित एक समतामूलक समाज कि स्थापना के लिए लड़ी गयी थी.लेकिन एक वैज्ञानिक नज़रिए से देखा जाय तो ऐसा समाज मुनाफ़े कि हवस और शोषण पर आधारित इस पूंजीवादी व्यवस्था के अर्न्तगत संभव ही नहीं दिखता. लेकिन यह भी सच है की यह व्यवस्था मनुष्य की नियति नहीं है और मनुष्यता के विकास की आखिरी मंजिल तो हरगिज़ नहीं। यह मानवजनित व्यस्था है और इसका निर्मूलन मनुष्य के संगठित प्रयासों द्वारा ही होगा.ज़ाहिर तौर पर एक नए समाज की स्थापना के लिए युवाओं में एक वैज्ञानिक क्रांतिकारी सोच कि ज़रुरत है जो एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान पर किये गए हर प्रकार के शोषण के खिलाफ़ समझौताहीन संघर्ष कर पाने में सक्षम हो. तभी सही मायने में एक लोकस्वराज्य की स्थापना हो सकती है. आज़ादी का जश्न मनाना ऐसा दिन आने तक टल सकता है.